আধুনিক ভারতের বা সেই অর্থে স্বাধীন ভারতের যে উত্থান ইতিহাস পাওয়া যাবে সেখানে, যে সমস্ত জ্যোতিষ্কের নাম চিরকালের জন্য অক্ষয় হয়ে থাকবে এবং যাঁরা আবহমান কাল ধরে বয়ে চলা সেই ইতিহাসের এক অবিচ্ছেদ্য অংশ হয়ে থাকবেন তাঁদের মধ্যে মহাত্মা গান্ধী অন্যতম এক পূজনীয় নাম। ভারত অনাদি অতীত থেকেই একটি আধ্যাত্মিক দেশ। এই আধ্যাত্মিকতাকে কেন্দ্রে রেখেই তার উত্থান হবে। এই আধ্যাত্মিকতাকে ভরকেন্দ্র করেই মহাত্মা গান্ধী ভারতীয় রাজনীতির গতিমুখ আধ্যাত্মিকতা নির্ভর করার প্রয়াস করেছিলেন।
গান্ধীজীর এই প্রচেষ্টা কেবলমাত্র শাসন ক্ষমতা দখলের রাজনীতির মধ্যে সীমাবদ্ধ ছিল না। সমাজ ও এই সমাজকে তাঁরা নেতৃত্ব দিচ্ছেন তাঁদের আচার আচরণ যাতে স্বচ্ছ হয়, মনুষ্যধর্ম অনুযায়ী হয় তিনি যে দিকে বেশি গুরুত্ব দিয়েছিলেন। ব্যক্তিগত আকাঙ্ক্ষা ও স্বার্থান্বেষণের উদ্দেশ্যে অহঙ্কার ও বিকৃত মানসিকতার রাজনীতিকে উনি সম্পূর্ণ বর্জন করেন। তিনি এই বৈষয়িক উদ্দেশ্য সম্বলিত রাজনৈতিক পন্থাকে অস্বীকার করেছিলেন।
সত্য, অহিংসা, স্বাবলম্বন এর ওপর নির্ভরশীল হোক ভারতের প্রতিটি মানুষের জীবন। এই ছিল তাঁর ইচ্ছা। দেশ ও মানবিকতার উন্নয়নে এটাই ছিল তাঁর কাছে স্বপ্ন সফল করার পথ। গান্ধীজী এই দর্শন তাঁর নিজের জীবনে সফল করে দেখিয়েছিলেন।
১৯২২ সালে গান্ধীজী গ্ৰেপ্তার হওয়ার পর কংগ্রেস নাগপুর শহরে এক জনসভার আয়োজন করেছিল। ঐ সভায় অন্যতম বক্তা হিসেবে শ্রী হেডগেওয়ার গান্ধীজীকে ‘পুণ্য পুরুষ’ সম্বোধন করে বলেছিলেন, গান্ধীজীর কথা ও কাজের মধ্যে কোন তফাৎ নেই। যা তিনি বলেন তাই তিনি নিজের জীবনে অভ্যাস করেন। জীবনে নিজের চিন্তা ও মতকে অনুসরণ করে চলার জন্য তিনি সর্বস্ব ত্যাগ করতেও প্রস্তুত ছিলেন।
উনি বলেন কেবলমাত্র গান্ধীজীর গুণকীর্তন করলেই তাঁর আদর্শকে এগিয়ে নিয়ে যাওয়া যাবে না। গান্ধীজীর ঐ বিশেষ গুণগুলি নিজের জীবনে অনুসরণ করে চলতে পারলে তবেই গান্ধীজীর আরাধ্য কাজকে সফল করা যাবে।
পরাধীনতার কারণে সৃষ্ট মানসিকতা যে কতখানি ক্ষতিকারক হতে পারে তা গান্ধীজী ভালই জানতেন। তাঁর ‘হিন্দ স্বরাজ’ পত্রিকায় এই পরাধীনতার মানসিকতা মুক্ত এক স্বচ্ছ ভারতীয় দৃষ্টিভঙ্গী নিয়ে ভারতের উন্নতির ও নাগরিকদের আচরণ যেমন হওয়া উচিত তার একটি রূপরেখা তিনি দিয়েছিলেন। ঐ সময়ে যারা বিশ্বকে চমকে দিয়ে বিজয়ী পাশ্চাত্য শক্তি নিজেদের গর্বে পরাধীন দেশগুলিতে ইতিহাস বিকৃত করে, কেবলমাত্র তারাই যে শ্রেষ্ঠ এমন শিক্ষা প্রচার করতে শুরু করেছিল। বিপুল অর্থশালী হওয়ায় তারা অন্যদের তাদের আশ্রিত হিসেবে ধরে নিয়ে প্রবল বেগে এগিয়ে যাওয়ার চেষ্টায় ব্যস্ত ছিল।
এমনই একটা সময়ে জীবনের প্রত্যেকটি ক্ষেত্রে কেবলমাত্র সত্যের ওপর নির্ভরশীল থেকে কাজ করে যাওয়ার নির্দেশ এক অত্যন্ত সফল প্রচেষ্টায় পরিণত হয়েছিল। কিন্তু পরাধীন মানসিকতায় সম্পূর্ণ প্রভাবিত কিছু লোক নিজের দেশের প্রাচীন মনীষা, শিক্ষা, সংস্কার ও গৌরবকে হীন ও তাকে অনুসরণ করা অপমানজনক মনে করে পাশ্চাত্যের অন্ধানুকরণ ও তাদের চাটুকারিতায় লেগে পড়ে। এই কাজের গভীর অভিঘাত আজও ভারতের বর্তমান অবস্থা ও ভবিষ্যতের দিক নির্দেশের ওপর প্রভাব বিস্তার করে রয়েছে।
বিশ্বের অন্য কিছু কিছু দেশের মহান ব্যক্তিরাও গান্ধীজীর দেখানো পথের কিছু নির্দেশ নিজের দেশের বিচার ধারার সঙ্গে খাপ খাইয়ে সেখানে প্রয়োগ করেছেন। আইনস্টাইনের মত মানুষ তো বলছিলেন যে ভবিষ্যতে প্রজন্ম হয়ত বিশ্বাসই করবে না গান্ধীজীর মত মানুষ একদিন পৃথিবীর এই মাটিতেই পদচারণা করেছিলেন। এমনই পবিত্র আচরণ ও যথার্থ দিকদর্শন গান্ধীজী তাঁর নিজের জীবনযাত্রার উদাহরণের মাধ্যমে আমাদের কাছে রেখে গেছেন।
তিনি ১৯৩৬ সালে মহারাষ্ট্রের ওয়ার্ধা শহরের কাছে অনুষ্ঠিত সঙ্ঘ শিবিরেও এসেছিলেন। গান্ধীজী যেখানে উঠেছিলেন সেখানেই পরের দিন ড. হেডগেওয়ার দেখা করতে যান। গান্ধীজীর সঙ্গে ওঁর দীর্ঘ আলোচনা ও প্রশ্নোত্তর পর্ব চলছিল, যা বর্তমানে পুস্তকাকারে পাওয়া যায়।
দেশভাগের রক্তরঞ্জিত সময়েও দিল্লীতে গান্ধীজীর আবাসস্থলের কাছেই আর এস এসের যে শাখা চলছিল সেখানেও গান্ধী এসেছিলেন। এখানে শাখা কাজের ওপর তিনি বৌদ্ধিক ভাষণও দেন। তাঁর ভাষণটি ২৭শে সেপ্টেম্বর ১৯৪৭-এর ‘হরিজন’ পত্রিকায় ছাপা হয়।
সঙ্ঘের স্বয়ংসেবকদের অনুশাসন মান্যতা ও জাতিভেদ প্রথাকে সম্পূর্ণ পরিহার করার বিষয়টি গান্ধীকে অত্যন্ত প্রসন্ন করে তুলেছিল। তিনি তাঁর আনন্দের কথা ব্যক্তও করেছিলেন।
সম্পূর্ণ নিজস্বতার ওপর ভারতের পুননির্মাণের স্বপ্ন দেখা, সমাজকে ভেদাভেদ, জাতিভেদ ভুলে সমরসত্ত্বার ওপর গড়ে তোলায় বিশ্বাসী, নিজের কথার সঙ্গে সঙ্ঘের আচরণের প্রতিতুলনা করা গান্ধীজী সমস্ত মানুষের আরাধ্য ছিলেন ও আছেন। তাঁর জীবনকে পর্যালোচনা করা, বোঝা ও নিজেদের জীবনকে তাঁর নির্দেশিত পথে পরিচালনা করাই আমাদের কর্তব্য। গান্ধীজীর উল্লেখিত বিশেষ সদ্গুণগুলির জন্য তাঁর বিচার ধারার সঙ্গে সম্পূর্ণ সহমত নন এমন কিছু বিরোধীও তাঁকে শ্রদ্ধা করতে দ্বিধা করত না।
সঙ্ঘের প্রাতঃকালীন শাখা প্রত্যহ একটি স্তোত্রের মাধ্যমে দেশের মহাপুরুষগণের নামের উল্লেখের চিরায়ত পরম্পরাকে স্মরণ করার রীতি সঙ্ঘ শুরুর দিন থেকেই রয়েছে। ১৯৬৩ সালে এই নামগুলির পরিমার্জনা করে নতুন নাম যুক্ত হয়। তখন পর্যন্ত গান্ধীজীর আগেকার মহাপুরুষদেরই নাম সঙ্কলিত ছিল। নতুন সংযোজনে গান্ধীজী অন্তর্ভুক্ত হন। এটিকে এখন একাত্মতা স্তোত্র বলা হয়। প্রত্যহ প্রাতে এই স্তোত্রপাঠের সময় স্বয়ংসেবকরা গান্ধীজীর পুণ্য নাম স্বরণ করেন। সেই সঙ্গে তাঁর গুণময় পুণ্য জীবন কথাও স্মরণ করা হয়।
আজ গান্ধীজীর ১৫০তম জন্ম বর্ষের প্রাক্কালে আমাদের একটিই সংকল্প করা প্রয়োজন। তাঁর জীবন অনুসরণ করে পবিত্রতা, ত্যাগ ও শুদ্ধ দৃষ্টির মাধ্যমে আমরা তাঁর জীবন দর্শনে অনুপ্রাণিত হয়ে ভারতকে বিশ্বগুরুর আসনে বসাবার জন্য সমর্পিত জীবন যাপন করব।
অনুবাদ – সুব্রত বন্দ্যোপাধ্যায়
महात्मा गाँधी की जीवन-दृष्टि का अनुसरण करें — डॉ. मोहन भागवत
भारत देश के आधुनिक इतिहास तथा स्वतंत्र भारत के उत्थान की गाथा में जिन विभूतियों के नाम सदा के लिये अंकित हो गये हैं, जो सनातन काल से चलती आयी भारत की इतिहास गाथा के एक पर्व बन जायेंगे, पूज्य महात्मा गाँधी का नाम उनमें प्रमुख है। भारत आध्यात्मिक देश है और आध्यात्मिक आधार पर ही उसका उत्थान होगा, इसे आधार बना कर भारतीय राजनीति को आध्यात्मिक नींव पर खड़ा करने का प्रयोग महात्मा गाँधी ने किया।
गाँधी जी के प्रयास केवल सता की राजनीति तक सीमित नहीं थे। समाज तथा उसके नेतृत्व का सात्विक आचरण उत्पन्न करने पर उनका अधिक जोर रहता था। महत्वाकांक्षा और स्वार्थ से प्रेरित होकर, अहंकार और विकारों के आधार पर चलने वाली देशान्तर्गत और वैश्विक राजनीति को उन्होंने पूरी तरह से अमान्य कर दिया था। सत्य, अहिंसा, स्वावलंबन व मनुष्यमात्र की सच्ची स्वतंत्रता पर आधारित भारत का जनजीवन हो, देश व मानवता के लिये यही उनका सपना था। गाँधी जी का यह चिंतन उनके अपने जीवन में पूर्णतः साकार होता था।
1922 में गाँधी जी की गिरफ्तारी के बाद नागपुर शहर कांग्रेस ने एक जनसभा का आयोजन किया। वक्ता के रूप में उस सभा में डॉ हेडगेवार ने “पुण्यपुरुष” विशेषण से संबोधित करते हुए कहा कि गाँधीजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। जीवन में अपने धैर्य और विचारों के लिये सर्वस्व त्याग करने की उनकी सम्पूर्ण तैयारी है। उन्होंने कहा कि केवल गाँधीजी का गुणवर्णन करने से गाँधीजी का कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। गाँधीजी को उनके इन गुणों का अनुकरण कर अपने जीवन में चलेंगे तो वही गाँधी जी के कार्य को आगे बढ़ाने वाला होगा।
पराधीनता के कारण तैयार होने वाली गुलामी की मानसिकता कितनी हानिकर होती है इसको गाँधीजी जानते थे। उस मानसिकता से मुक्त, शुद्ध स्वदेशी दृष्टि से भारत के विकास तथा आचरण का एक स्वप्नचित्र उन्होंने “हिंद स्वराज” के रूप में लिखा है। उस समय की दुनियाँ में सबकी आंखों को चकाचौंध कर देने वाली भौतिकता को लेकर विजयी पाश्चात्य जगत, संपूर्ण दुनियाँ में अपनी ही पद्धति और शैली को, सत्ता के बल पर शिक्षा को विकृत करते हए व आर्थिक दृष्टि से सबको अपना आश्रित बनाने की चेष्टा करते हुए आगे बढ़ रहा था। ऐसे समय में गाँधीजी दवारा हआ यह प्रयास स्वत्व के आधार पर जीवन के सभी पहलुओं में एक नया विचार देने का बहुत ही सफल प्रयोग था। किन्तु गुलामी की मानसिकता वाले लोग बिना देखे-सोचे पश्चिम से आयी बातों को ही प्रमाण मान कर अपने पूर्वज, पूर्व गौरव व पूर्व संस्कारों को हीन और हेय मानकर अंधानुकरण व चाटुकारिता में लग गये थे। उसका बहुत बड़ा प्रभाव आज भी भारत की दिशा और दशा पर दिखायी देता है।
अन्य देशों के समकालीन महापुरुषों ने भी गाँधीजी के भारत केन्द्रित चिंतन से कुछ अंशों को ग्रहण करते हए अपनेअपने देश की विचार संपदा में योगदान किया। आइंस्टीन ने तो गाँधीजी के निधन पर कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना भी कठिन होगा कि ऐसा कोई व्यक्ति इस भूतल पर जीवन बिता कर चला गया। इतना पवित्र आचरण और विचार गाँधीजी ने अपने जीवन के उदाहरण से हमारे सामने रखा है।
गाँधी जी 1936 में वर्धा के पास लगे संघ शिविर में भी पधारे थे। अगले दिन डॉ. हेडगेवार की भेंट उनसे गाँधीजी के निवास स्थान पर हुई। गाँधीजी से उनकी प्रदीर्घ चर्चा व प्रश्नोत्तर हुए जो अब प्रकाशित हैं। विभाजन के रक्तरंजित दिनों में दिल्ली में उनके निवास-स्थान के पास लगने वाली शाखा में गाँधीजी का आना हुआ था। उनका बौद्धिक वर्ग
भी संघ शाखा पर हुआ था। उसका वृत्त 27 सितंबर 1947 के ‘हरिजन’ में छपा है। संघ के स्वयंसेवकों का अनुशासन और जाति-पांति की विभेदकारी संवेदना का उनमें संपूर्ण अभाव देख कर गाँधीजी ने प्रसन्नता व्यक्त की।
‘स्व’ के आधार पर भारत की पुनर्रचना का स्वप्न देखने वाले तथा सामाजिक समता और समरसता के संपूर्ण पक्षधर, अपनी कथनी का स्वयं के आचरण से उदाहरण देने वाले, सभी लोगों के लिये आदर्श पूज्य गाँधी जी को हम सबको देखना, समझना तथा अपने आचरण में उतारना चाहिये। उनके इन्हीं सदगुणों के कारण गाँधीजी के विचारों से किंचित मतभेद रखने वाले व्यक्ति भी उनको श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में रोज प्रातःकाल एक स्त्रोत्र के द्वारा अपने देश के महापुरुषों की परम्परा का स्मरण करने की प्रथा संघ के स्थापना काल से ही है। 1963 में इसकी पुनर्रचना कर इसमें कुछ नये नाम जोड़े गये। इस समय तक पू. गाँधी जी दिवंगत हो चुके थे। उनका नाम भी इसमें जुड़ा। वर्तमान में इसे ‘एकात्मता स्त्रोत्र’ कहते हैं। संघ के स्वयंसेवक प्रतिदिन प्रातःकाल एकात्मता स्त्रोत्र में गाँधीजी के नाम का उच्चारण करते हुए उपरोक्त गुणों से युक्त उनके जीवन का स्मरण करते हैं।
उनके जन्म के 150वें वर्ष में उनका स्मरण करते हुए हम सबका यह संकल्प होना चाहिये कि उनके पवित्र, त्यागमय व पारदर्शी जीवन तथा स्व आधारित जीवनदृष्टि का अनुसरण करते हुए हम लोग भी विश्वगुरु भारत की रचना के लिये अपने जीवन में समर्पण व त्याग की गुणवत्ता लायें।